Saturday, March 19, 2011

हर रंग से रंग दे...

रंग पर्व की अशेष शुभकामनायें...भारतीय संस्कृति की पहचान बन चुके इस महान रंगोत्सव में आपकों अपनी एक छोटी सी रचना सादर समर्पित करता हूँ...


हर रंग से रंग दे...

रंग मुझे हर रंग से रंग दे,रंग से रंग दे भंग से रंग दे,
रंग मुझे हर रंग से रंग दे...
श्याम वर्ण सुन्दर से रंग दे,मथुरा की हुड़दंग से रंग दे,
रंग मझे हर रंग से रंग दे...
नील कण्ठ हरहर से रंग दे,जानकी-वल्लभ रम से रंग दे,
रंग मुझे हर रंग से रंग दे...
गौरवर्ण गोपीन की गागर,चाल थिरकती मद से रंग दे,पनघट के पेड़ों पर अंगिया,श्याम ठठोली हद से रंग दे,
रंग मुझे हर रंग से रंग दे...
रास नचाते कान्हा पर हर गोपीन के उस मान से रंग दे,उद्धव की बुद्धी पर भारी ब्रज की उस पहचान से रंग दे,
रंग मुझे हर रंग से रंग दे...
रंग ठिठौली,रंग भंगौली रंग रंग संसार को रंग दे,
तम को रंग दे,बद को रंग दे रंग किसी अभिमान को रंग दे,
इन्द्रधनुष छा जाये नभ पर रंग किसी मुस्कान को रंग दे....


पुनः रंगोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें.....
आपका,
संजय उपाध्याय,
बिलासपुर

Saturday, March 12, 2011

न्यूटन्स लॉ आफ सोशियो इकोनामिक मोशन

सेठ गुलमोहर दास के घर पर मजमा लगा हुआ था... जितने लोग सेठ जी के बारामदे तक पहुंचने में कामायब हो पाये थे उससे क़रीब बीस गुना ज्यादा लोग सेठ जी के सोने से चमचमाते बड़े फाटक के बाहर आस लगाये बैठे थे... सभी ने अपने खीसे में अपनी औका़त के हिसाब से रंग गुलाल की छोटी बड़ी पुड़िया बांध रखी थी... लेकिन सेठ के गेट के भीतर बारामदे तक पहुंचने में वे लोग ही कामयाब हो पाये थे जिन्होने यह भरोसा दिलाया था कि उनके खीसे में रखे रंग विलायती हैं... अब बेचारे फागू को क्या मालूम की विदेशों में होली खेली भी जाती है या नही... लेकिन एक बार जो फागू को यह समझाने में क़ामयाब हो गया तो उसके लिये बारामदे में जगह पक्की हो गयी... सेठ के मुंहलगे चमचे फागू को यह ताकी़द किया गया थी कि सेठ तक सस्ता रंग या गुलाल किसी भी हालत में ना पहुंचे... अब यह बात अलग थी कि रंगों की गुणवत्ता परखने का फागू का अपना अलग पैमाना था... फागू की कृपा से सेठ गुलमोहर की चौखट तक पहुंच चुके लोगों की धड़कनें मानो उनका साथ नही दे पा रही थीं... लोग बेसब्र हुये जा रहे थे कि कब सेठ बाहर निकले और उन्हे अपने खीसे में रखे खुशबुदार रंगों कि नुमाईश का मौका मिले... रंगों से लिपटी खुशबू उड़ ना जाये इसलिये कई दावेदारों ने अपने जेब की मुठ्ठी भी बांध रखी थी... माथे की बात तो कोसो दूर ये स्वामी भक्त तो यही सोच कर सिहर रहे थे कि आज उन्हे अपने हाथों से सेठ जी के चरणों के तिलक वन्दन का सौभाग्य प्राप्त होगा... बेसब्री का यही आलम बड़े फाटके के बाहर भी था... फागू को समझाने की सारी कोशिशे नाका़मयाब होने के बाद भी आस ने हार नही मानी थी... बड़े फाटक पर इनकी मौजूदगी भले सेठ जी ना जान सकें लेकिन इन लोगों को इस बात से ही काफी संतोष था कि फागू ने उन्हे घण्टों या कहें दिन के अंतिम क्षणों तक यहां लगातार बेसब्र होते देखा था...

सेठ गुलमोहर दास का दर्जा नवरंग पुर गांव में उनके भक्तों के लिये भैरव का और दुश्मनों के लिये लादेन सा था... मतलब दोनों ही उनसे हद की इंतेहा तक भय खाते थे... सेठ गुलमोहर दास को यह दर्जा हासिल किये ज्यादा वक़्त नही गुजरा था... गुलपरचुनिया का नाम अब तक नवरंगपुर वासियों के जहन में ताजा था... लेकिन इस बात का जिक्र करने का साहस किसी में भी नही था... अब तो नवरंगपुर के जमींदार की विराट हवेली में भी चमगादड़ बोलने लगे थे... गुलपरचुनिया को आधा सेर खराब चोट्टा देने की सजा देते हुये तब जमींदार ने भद्दी गालियों के साथ जुर्माना भी ठोक दिया था... घर घर घुम कर लोगों से चिरौरी विनती कर किसी तरह परचुन बेचने वाले गुलपरचुनिया ने यह जुर्माना किस तरह पटाया इसका पूरा गांव आज भी गवाह है... जुर्माना पटाने के लिये उसे तीन पखवाड़े तक एक जून का खाना पीना छोड़ना पड़ा था... यह ऐसा वक्त था जब गुलपरचुनिया विनम्रता, सौम्यता और दर्द होने पर भी हंसते चेहरे का प्रतीक था.. झुककर बड़े छोटों का अभिवादन और साथ ही गांव की मण्डली में खुद को शामिल करवाने की चिरौंजी गुलपरचुनिया के नित्य कर्म का हिस्सा थी... नवरंगपुर के किसी वासी को इस बात का अंदाजा नही था कि एक लाटरी पूरे गांव की तस्वीर बदल देगी... और गांव का कौड़ी पति गुलपरचुनिया गांव ही नहीं बल्कि पूरी रियासत का सबसे धनी और रुतबेदार सेठ बन जायेगा... किसी ने सपने में भी यह सोचने की जहमत नहीं की थी कि विनम्रता और सौम्यता से अभिवादन को झुका गुलपरचुनिया सेठ गुलमोहर दास बनने के साथ ही ना केवल इतन तन जायेगा बल्कि पीठ की ओर इतना अकड़ भी जायेगा... कभी गुलपरचुनिया पर जुर्माना ठोकने वाला और गांव का जमींदार रहा गुलाल सिंह अब लोगों से मिन्नते करता और उनके पैरों पर गिरता फिरता... उसकी एक ही इच्छा थी कि वह एक बार सेठ से मिलकर अपने गुनाहों का प्रायाश्चि कर ले... सेठ के कोप से सब कुछ लुट जाने के बाद भी किसी अतिरिक्त अनिष्ट का भय गुलाल सिंह का पीछा नही छोड़ता... गुलाल सिंह के इस हालात पर सहसा किसी को यक़ीन नही होता... एक वक्त था कि गुलाल सिंह की हवेली तो दूर हवेली के रास्ते पर किसी की मौजूदगी उस पर जुर्माने के लिये काफी थी... आज वही गुलाल सिंह लोगों से झुककर मिन्नते कर रहा था... गुलाल सिंह की यह हालत देख कर नवरंगपुर का हर आदमी सिहर उठता... वह रात भर करवटे बदलता सिर्फ यही सोचता कि किभी अंजाने में भी उसने गुलपरचुनिया से कोई बदतमीजी तो नही की...

कुबेर का पर्याय बन चुके सेठ ने अपने धन वैभव के दम पर ऐसा चक्कर चलाया था कि जहां जमींदार गुलाल सिंह की जमीन सरकार ने फाईलों में जप्त कर ली थीं वहीं हवेली भी बाबूओं की फाईलों में जा समायी थी... गुलाल सिंह सालों दफ्तरों के चक्कर काटता रहा लेकिन उसकी फाईलें तो मानो अंगद के पैर की तरह जम सी चुकी थीं... लाखों मिन्नते और दुहाईयों के बाद भी उसमें कोई हलचल पैदा नही हुयी... आखिर फाईलों में पैर लगाने के लिये जिस शिष्टाचार की जरुरत थी उसे गुलाल सिंह कैसे पूरा करता... सब कुछ लुटने के बाद उसके नवाबी शौक ने उसे ढ़ेले ढ़ेले को मुहताज़ बना ड़ाला... गुलाल सिंह के भीतर अपनी जमींदारी हासिल करने की तनिक भी इच्छा नही थी वह तो सिर्फ इतना चाहता था कि उसे जमीन का सिर्फ एक टुकड़ा ही मिल जाये जिसे बेचकर वह इस गांव से हमेशा के लिये विदाई ले ले और किसी दूर गांव में अपनी दाल रोटी का इंतज़ाम कर ले... किसी तरह कर्ज लेकर गुलाल सिंह ने सरकारी दफ्तरों के बाबूओं को डालियां चढ़ायीं... शिष्टाचार के धक्के से गुलाल सिंह की फाईलें चलनी शुरू तो हो गयीं लेकिन जहां जाती वहां अपने साथ बाबूओं से लिये अपेक्षायें लेकर जातीं... बेचार गुलाल सिंह कितनों को संतुष्ट कर पाता... यही वजह थी कि फाईले अपने मुक़ाम तक पहुंचने के पहले ही बार बार वापस लौट आती... शिष्टाचार का सेवन कर चुके लोग इसे बार बार आगे बढ़ाते और इर्ष्यालू इसे बार बार वापस भेज देते... मतलब फाईल की गति निरंतर जारी रही...

एक तरफ जहां गुलाल सिंह अपनी बाकी जिन्दगी अभाव में ही सही जीने की जद्दोजहद में लगा हुआ था वहीं दूसरी ओर इसी जिले में रहने वाला एक बड़ा आसामी सेठ गुलमोहर दास को पटखनी देने की तैयारी कर रहा था... रूतबे में सेठ से उन्नीस ही सही मगर ब्रिजलाल की पहुंच डिस्ट्रीक बोर्ड के रसूखदार अधिकारियों से ठीक-ठाक थी... बोर्ड के बहुत से रुतबेदार ब्रिजलाल की ठण्ढ़ाई और रात भर चलने वाली ड्रामा मण्डली के दीवाने हो चुके थे... गुलाल सिंह से शहर की कचहरी में एक मुलाक़त ने ब्रिजलाल के मंसूबों को और भी ज्यादा हवा दे दी... ब्रिजलाल को महज इंतजार था कचहरी में चल रहे इस मुकदमे के अपने पक्ष में फैसले का जिसके बाद वह पूरी ताक़त सेठ गुलमोहर दास को नेस्तनाबूत करने में लगा देता... इसीलिये यह मुक़दमा ब्रिजलाल के लिये बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण था और इसमे हार का मतलब था सेठ गुलमोहर दास से हार... कुछ साल पहले गांव में सूखा पड़ने पर किसानों की खड़ी फसल कटवाकर अपने खलिहानों में जमा करने का मुकदमा ब्रिजलाल पर अब तक चल रहा था... एक सोची समझी साजिश के तहत ब्रिजलाल ने गुलाल सिंह को अपने जाल में फंसा लिया... ब्रिजलाल के दिये पैसों की बदौलत जहां गुलाल सिंह की फाईले अपने गंतव्य तक पहुंचने और पहुंच कर रुकने में कामयाब हो सकीं वहीं इसके एवज में गुलाल सिंह ने अपना फर्ज अदा करते हुये ब्रिजलाल की खिलाफत कर रहे किसानों को घेरना शुरू किया... अपने आडंबरी व्यवहार और छद्म गांधीवाद के दम पर गुलाल सिंह ने जल्द ही किसानों का विश्वास जीत लिया... किसान इस बहुरूपिये खद्दड़धारी का विश्वास करने लगे और यहां तक वहीं करने भी लगे... बेचारे सीधे सादे गांव वासियों को इस बात का जरा सा भी एहसास नही हुआ कि वे ना केवल मुकदमा हारने जा रहे हैं बल्कि लूट का आरोप भी उन पर ही मढ़ने की तैयारी की जा चुकी है... ब्रिजलाल की चाल और गुलाल सिंह के स्वार्थ ने ऐसा खेल दिखाया कि अंत में ऐसा ही फैसला आया... इसके बाद ब्रिजलाल और सेठ की शुरू हुयी शह मात की लड़ाई अब तक जारी है ...

गुलमोहर, फागू, गुलाल सिंह, ब्रिजलाल और ग्रामीणों को पात्र बनाकर मेरे द्वारा लिखी गयी इस कहानी पर अब आप या तो कहानी का क्रम खोजेगे या घटनाओं का अंतर्संबंध... लेकिन सामाजिक जगत में घटने वाली इन सार्वभौमिक घटनाओं में मैने कुछ और ही खोजने की कोशिश की है... कोशिश अविष्कारों के सामाजिक पक्ष को खोजने की... निश्चित ही समाज का अस्तित्व इन वैज्ञानिक अविष्कारों के पहले से रहा है... इसलिये वैज्ञानिक अविष्कार भी कही ना कही सामाजिक घटनाओं से प्राभावित रहा है... मैने इन सामाजिक-आर्थिक घटाओं के माध्यम से न्यूटन के उस सार्वभौमिक सिद्धांत को खोज निकाला है जिसकी खोज न्यूटन ने सामज के अस्तित्व में आने के बहुत बाद की थी... न्यूटन की गति के तीन सार्वभौमिक नियम सीधे तौर पर समाज में भी देखे जा सकते हैं...

1... सेठ गुलमोहर दास जब गरीब थे तब झुके हुये थे... अचानक लाटरी लगने के बाद उनकी सामाजिक प्रस्थिति यकायक चमकीली हो गई... वैभव के साथ ही उनके सम्मान की गाड़ी आचानक ही चल पड़ी और वे सबसे दूर हो गये एकांकी हो गये... सीधा मतलब की वे अकड़ के साथ पीछे की ओर तन गये........ वहीं जमींदार गुलाल सिंह की सामाजिक प्रस्थिति अचानक जैसे ही पटरी से उतरी उनकी समाज से दूरी उनकी अकड़ जाती रही और वे विनम्र हो गये... अवसर की तलाश में ही सही वे आगे की ओर झुक गये .......................................................................... न्यूटन के जडत्व का नियम भी यही कहता है... यदि स्थिर वस्तु को अचानक गतिशील किया जाये तो वह पीछे की ओर झुक जायेगी... समाज से अभिमुख हो जायेगी... और यदि गतिशील (वैभवशाली) वस्तु को अचानक रोक दिया जाये तब वह आगे की ओर झुक जायेगी (समाजोन्मुख हो जायेगी)...

2... जमींदार गुलाल सिंह की फाईलें दफ्तर में फाईलों के नीचे दबी रहीं... तब तक दबी रहीं जब तक रिश्वत ना दी गयी... उसी तरह उनकी फाईलें आधी अधूरी रिश्वत की वजह से लगातार गतिशील बनी रही, उनपर कोई निर्णय नही हो पाया जब तक बाकी लोगों को भी रिश्वत पूरी नही दी गयी... तब जा कर फाईल अपने मुकाम तक पहुंचकर फैसला अपने पक्ष में कराने के बाद स्थिर हो पायीं........................................ न्यूटन की गति के बाह्य बल का नियम भी यही कहता है कि यदि कोई वस्तु स्थिर है तो स्थिर और गतिशील है तो गतिशील बनी रहेगी जब तक की उसपर कोई बाह्य बल (रिश्वत) ना लगाया जाये... अब बाह्य बल रिश्वत के साथ ही पहुंच और बाहुबल का भी हो यह संभव है...

3... ब्रिजलाल ने गुलाल सिंह के साथ मिलकर एक छद्म खेल खेला... गुलाल सिंह ने लालच और स्वार्थ में ग्रामीणों को अपने वश में करने के लिये आडम्बर और अभिनय का सहारा लिया... हालात ऐसे हुये कि खेतों की लूट का सही आरोपी ब्रिजलाल बरी हुआ और पीड़ित किसान खुद ही आरोपी की श्रेणी में आ खड़े हुये.....
................................................... न्यूटन की गति का तीसरा नियम क्रिया की प्रतिक्रिया भी यही कहता है कि क्रिया की प्रतिक्रिया बराबर किंतु विपरीत (पीड़ित) दिशा में होती है... खेतों की लूट की क्रिया पर न्यायालय की प्रतिक्रिया तो हुयी लेकिन ब्रिजलाल के बजाय उन ग्रामीणों पर अर्थात विपरित दिशा में...

सामाजिक घटनाओं को अगर ध्यान से देखा जाये तब इस कहानी का व्यवहारिक पक्ष भी साफ दिखायी देता है... कहानी काल्पनिक जरूर है लेकिन यह सामाजिक घटनाओं से प्रेरित और प्रमाणित साक्ष्यों से प्रभावित है...

इस आधार पर यह यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि न्यूटन का नियम समाज और विज्ञान दोनो पर ही समान रुप से लागू होता है... हालांकि यह बात भी उतनी ही सच है कि समाज चुंकी मानवीय व्यवहारों और अंतर्संबंधों की विज्ञान है जहां मानवीय व्यवहार और संबंध लागतार परिवेश के मुताबिक परिवर्तनशील हैं इसलियें इनमें स्थिरता का अभाव है.......... फिर भी न्यूटन के तीनों नियम सामाजिक-आर्थिक अंतर्संबंधों और मानवीय व्यवहारों में कई बार स्पष्ट रुप से देखे जा सकते हैं.....................
.................................. यही है .................................." न्यूटन्स लॉ ऑफ सोशियो-इकॉनामिक मोशन " ....................................

.........संजय उपाध्याय.........
बिलासपुर, छत्तीसगढ़
मो.नं. 09630522788
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